नई दिल्ली। छत्तीसगढ़ की हाईकोर्ट के पास आदिवासी दंपत्ति के तलाक का एक मामला पहुंचा है, जिसमें एक आदिवासी महिला ने अपने पति पर प्रताड़ना का आरोप लगाया है। कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील से ही सवाल कर लिया कि आदिवासियों में तलाक के क्या तौर-तरीके हैं, लेकिन ऐसा हुआ क्यों और क्या है ये पूरा मामला, चलिए जानते हैं।
क्यों आदिवासियों का कानून के तहत तलाक है मुश्किल?
भारत के आदिवासी समाज में हिंदू-विवाह अधिनियम लागू नहीं होता है। इसी तरह आदिवासी समाज में विशेष विवाह अधिनियम भी लागू नहीं होता। ऐसे में कानूनी प्रक्रिया के तहत कोई दंपत्ति तलाक के लिए कोर्ट के पास पहुंचता है, तो अदालत के पास उन्हें तलाक देने का कोई आधार नहीं है।
हाल ही में छत्तीसगढ़ का दंपत्ति जब तलाक लेने के लिए अदालत पहुंचा तो शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील जयदीप सिंह यादव को आदिवासी समाज में प्रचलित तलाक की प्रथाओं के बारे में जानकारी देने के लिए निर्देशित किया।
आदिवासियों पर लागू नहीं होते भारत के कई कानून
बातचीत में सर्व आदिवासी समाज के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अरविंद नेताम ने बताया कि विवाह, बहुविवाह, तलाक, दत्तक, भरण-पोषण, उत्तराधिकार जैसे तमाम कानून आदिवासियों पर लागू नहीं होते हैं। उन्होंने कहा कि आदिवासी समाज की लगभग सभी परंपराएं और रीति रिवाज, प्रथागत या रूढ़ियों यानी कस्टमरी लॉ से संचालित होती हैं। ये रूढ़ियां ही आदिवासियों की विशेष पहचान है। यही विशेषता उसे दूसरी तमाम जातियों, समुदायों और धर्मों से अलग करती है। ऐसे में समान नागरिक संहिता जैसे प्रावधानों पर आदिवासियों को सचेत रहने की जरूरत है। जिस तरह से झारखंड ने सरना कोड लागू करने की मांग की है, उसी तरह से देशभर में आदिवासियों के लिए अलग कोड लागू करने की जरूरत है।