दिलचस्प रहस्यों से भरी है श्री राम मंदिर के पीछे की गाथा : श्रीश्री रविशंकर

आज जब देश अयोध्या में राम मंदिर की प्रतिष्ठा के अभिषेक की तैयारियों में जुटा है, एक बहुप्रतीक्षित सपना सच होने जा रहा है। इसे तार्किक परिणति तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण किरदार निभाने वाले माननीय सर्वोच्च न्यायालय, हमारे प्रधानमंत्री और सभी हितधारकों द्वारा निभाई गई भूमिका को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने का भी समय है। अयोध्या में राम मंदिर के पीछे की गाथा दिलचस्प किस्सों और रहस्य से भरी है।

एक सूत्रीय एजेंडा… आंखों में जोश और चिंगारी

सन् 2002 की गर्मियों में विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष अशोक सिंघल हमारे बैंगलुरु आश्रम में मुझसे मिलने आए। वह कांचीपुरम से आये थे, जहां उन्होंने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के सिलसिले में तत्कालीन कांची शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वती से मुलाकात की थी। यह वाकया शंकराचार्य और प्रमुख मुस्लिम नेताओं के बीच वार्ता विफल होने के तुरंत बाद का है।

अशोक जी चाहते थे कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी निर्णायक रूप से तत्काल राम मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ करें। यह उनका एकसूत्रीय एजेंडा था। इस संदर्भ में उनकी कुछ मांगें अव्यावहारिक प्रतीत हुईं, क्योंकि वाजपेयी जी गठबंधन सरकार चला रहे थे।

सन् 2001 में जब मैं वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (डब्ल्यूईएफ) से भारत वापस आया, उसके बाद से ही वाजपेयीजी और मैं अयोध्या मुद्दे पर संपर्क में थे। उन्होंने मुझे लंबे समय से चले आ रहे विवाद का शांतिपूर्ण और सौहार्द्रपूर्ण समाधान निकालने का काम सौंपा था।

मैंने मुस्लिम समुदाय के नेताओं और प्रभावशाली सदस्यों के साथ चर्चाओं का एक सिलसिला शुरू किया। इन विमर्शों की बारीकियों पर मैं फिर कभी बाद में बात करूंगा।

उस समय, अशोक जी की वाजपेयी जी से बातचीत नहीं हो रही थी, ख़ासकर तब जब वाजपेयी ने उन्हें अयोध्या विवाद पर उनके आमरण अनशन के दौरान जबरदस्ती खाना खिला दिया था। वह मुझे इस बात के लिए राजी करने आये थे कि मैं वाजपेयी जी को राम जन्मभूमि मामले को हमेशा के लिए हल करने के लिए कानून लाने के लिए मनाऊं, भले ही इसके लिए सरकार गिर जाए। उन्होंने कहा, “मैं इसकी चिंता नहीं करता।”

मुझसे डेढ़ गुना उम्र के 76 वर्षीय अशोक जी की आंखों में जोश और एक चिंगारी झलक रही थी; ऐसी चिंगारी जिसमें जुनून, पवित्र आक्रोश और हताशा दिख रही थी। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या कभी मंदिर बनेगा? क्या उन्हें अपने जीवनकाल में यह देखने को मिलेगा? तब मुझे सहज रूप से लगा कि कम से कम अगले 14 वर्षों तक ऐसा नहीं होगा। मुझे याद है कि मैंने उनसे कहा था, “इसके लिए आप प्रार्थना करें और आपकी प्रतिबद्धता से सब कुछ संभव है।” अशोकजी मेरी बात से आधे आश्वस्त होकर आश्रम से चले गये।

नाड़ी सिद्ध ने पढ़ा प्राचीन ताड़पत्र पर लिखा रहस्य
अगली सुबह ध्यान के दौरान, मुझे एक जीर्ण-शीर्ण देवी मंदिर और एक तालाब के दर्शन हुए, जिनका पुनरुद्धार किए जाने की आवश्यकता थी। मैंने उस समय इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। कुछ दिनों के बाद, तमिलनाडु से एक नाड़ी सिद्ध बुजुर्ग आश्रम में आये और मुझसे मिलने की इच्छा व्यक्त की। जैसे ही उन्होंने प्राचीन ताड़पत्र को पढ़ा, उन्होंने विनम्रतापूर्वक अधिकार के साथ कहा, “गुरुदेव, इसमें लिखा है कि आपको राम जन्मभूमि मुद्दे को हल करने के लिए दोनों समुदायों को एक साथ लाने में भूमिका निभानी होगी।” उन्होंने यह भी कहा, “ताड़पत्र से यह भी पता चलता है कि श्री राम की कुलदेवी देवकाली के लिए बनाया गया मंदिर गंभीर उपेक्षा का शिकार है। जब तक इसका पुनरुद्धार नहीं किया जाता, तब तक अयोध्या में राम मंदिर को लेकर हिंसा और संघर्ष का अंत नहीं होगा।” जब उन्होंने यह दोहराया कि “यह करना ही होगा!” तो उसमें अत्यावश्यकता और दृढ़ विश्वास की भावना थी।

न तो नाड़ी सिद्ध और न ही मुझे ऐसे किसी मंदिर के अस्तित्व के बारे में पता था। अपने कुछ संपर्कों के माध्यम से मैंने अयोध्या में काली मंदिरों के बारे में पड़ताल की। ज्यादा समय नहीं बीता, जब हमें पता चला कि वास्तव में वहां दो काली मंदिर थे। पहला, शहर के मध्य में, छोटी देवकाली मंदिर कहलाता था, जबकि दूसरा, थोड़ा अधिक दूर, देवकाली मंदिर के नाम से जाना जाता था।

देवकाली मंदिर खंडहर में परिणत हो चुका था और इसका केंद्रीय तालाब डंपिंग ग्राउंड में परिणत हो चुका था। मैं मंदिर के जीर्णोद्धार और तालाब के कायाकल्प पर काम शुरू करने के लिए दिल्ली और लखनऊ के अपने स्वयंसेवकों के साथ पहुंचा।

जब मंदिर की भौतिक संरचना का जीर्णोद्धार पूरा हो गया, तो टीम ने इच्छा व्यक्त की, कि अयोध्या में देवकाली मंदिर के पुनरुद्धार अनुष्ठान के दौरान मैं भी उपस्थित रहूं। सितंबर 2002 में, मैं प्राण प्रतिष्ठा समारोह के पवित्र अनुष्ठान के लिए अपने कुछ अनुयायियों और वैदिक व आगम पंडितों के एक समूह के साथ अयोध्या में था।

हृदयविदारक कहानियां जो मीडिया में नहीं आईं
हमने हनुमान गढ़ी, श्री राम जन्मस्थान और अन्य पवित्र स्थलों का भ्रमण किया। शहर की संकरी गलियां, कूड़े-कचरे से भरे रास्ते और कुल मिलाकर, स्वच्छता की कमी और उपेक्षा की एक स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत कर रहे थी। लोगों में भय की भावना व्याप्त थी। मैं जहां भी जाता, लोग दुखद कहानी बयां करते थे कि लंबे समय से चले आ रहे इस संघर्ष में कितने साधु-संत मारे गए। किसी ने भी इन साधुओं के लिए आवाज उठाने का साहस नहीं किया, जिनका कोई निर्दिष्ट आश्रम, कोई परिवार या कोई अधिकार नहीं था। उनकी व्यथाओं की कहानियां सुनना हृदयविदारक था, ऐसी कहानियां जिन्हें कभी मीडिया में स्थान नहीं मिला।

19 सितंबर, 2002 को सुबह में देवकाली मंदिर की पुनः प्राण प्रतिष्ठा हुई। जैसे ही मैंने बेंगलुरु में हमारे वेद एवं आगम पाठशाला के मुख्य पुजारी श्री सुंदरमूर्ति शिवम के नेतृत्व में पंडितों के एक समूह द्वारा किए गए यज्ञ में पूर्णाहुति अर्पित की, उस समय देवकाली को अपनी संपूर्ण दैदीप्यमान महिमा में दीप्तिमान् हुए देखना अत्यंत आनंददायक था। देवी मंदिर की खोई हुई महिमा को पुनः प्रतिष्ठित होते देख, अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए मंदिर के वृद्ध पुजारी के पास शब्द नहीं थे; बस उनकी आंखों से अश्रुधार बहने लगी, जब उन्होंने मुझे स्नेह से गले लगाया। फिर, मैंने जिस विचार को पहले नज़रअंदाज कर दिया था, उसके बारे में और नाड़ी पढ़ने वाले की भविष्यवाणी के बारे में डॉ. बीके मोदी को बताया, जो उस दिन भी मौजूद थे। संयोग देखिए कि मंदिर में पूजा के बाद से सांप्रदायिक हिंसा के कारण रक्तपात या दंगे की कोई घटना नहीं हुई है। एक भविष्यवाणी सच हो चुकी थी।

इस तरह वाजपेई सरकार के खिलाफ नरम पड़ा अशोकजी का रुख

उस दिन अशोक जी भी उपस्थित थे और मुझे भी यही पूर्वाभास था कि राम मंदिर को गति पकड़ने में कम से कम 14 वर्ष और लगेंगे। बाद में उस शाम, मंदिर के परिसर में एक संत समागम आयोजित किया गया, जिसमें हमने हिंदू और सूफी संतों, दोनों को आमंत्रित किया था। उस आनंदमय सत्संग में हजारों लोग शामिल हुए। जब मैं मुस्लिम नेताओं को सम्मानित कर रहा था, तो उन्होंने मुझे तुलसी रामायण की पुस्तक के साथ कुरान की एक प्रति भेंट की और श्री राम के प्रति अपनी गहरी श्रद्धा की बात कही। उनके हाव-भाव में भाईचारे की सुस्पष्ट भावना थी। मैंने बहुत गहराई से महसूस किया कि यह वोट-बैंक की राजनीति और निहित स्वार्थ वाले लोग हैं, जो चाहते हैं कि इस विवाद को लेकर दोनों समुदाय के लोग बंटे रहें।

इस सदियों पुराने संघर्ष में पहले ही काफी रक्तपात हो चुका था और अब एक ऐसे समाधान की आवश्यकता थी, जो समय की कसौटी पर खरा उतर सके। इसी बात को ध्यान में रखते हुए 2003 में मैंने न्यायालय के बाहर एक समझौते का प्रस्ताव रखा कि मुस्लिम समुदाय सद्भाव दिखाते हुए हिंदुओं को राम जन्मभूमि उपहार में दे और बदले में हिंदू उन्हें पांच एकड़ का भूखंड उपहार में दें और मस्जिद के निर्माण में मदद करें। इससे दोनों समुदायों के बीच भाईचारे का स्पष्ट संदेश जाएगा, जो आने वाली पीढ़ियों तक कायम रहेगा।

अशोक जी ने मुझे इलाहाबाद के अपने पैतृक घर में आमंत्रित किया। एक सामूहिक ध्यान का मार्गदर्शन करने के बाद, मैंने अशोकजी से कहा कि यह केवल मानवीय प्रयास नहीं है, किसी भी कार्य के फलीभूत होने में ईश्वरीय इच्छा की भी भूमिका होती है। और, इसके लिए हमें धैर्य की जरूरत है। मैंने उन्हें संकेत दिया कि उन्हें इस मामले में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, हड़बड़ी में कुछ भी नहीं करना चाहिए। शाम खत्म होते होते वह अत्यंत शांत और आश्वस्त लग रहे थे, और वाजपेयी सरकार के खिलाफ उनका रुख नरम हो गया था।

500 वर्ष के संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान
कई वर्ष बीत गए। 2017 में दोनों समुदायों के नेताओं और बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रेरित किए जाने पर मैंने राम जन्मभूमि मामले में मध्यस्थता के अपने प्रयास पुनः शुरू किए। अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर के निर्माण के लिए उक्त भूमि आवंटित करने और मस्जिद के निर्माण के लिए पांच एकड़ जमीन आवंटित करने का फैसला सुनाया। यह एक महत्वपूर्ण अवसर था, क्योंकि 500 वर्ष पुराना संघर्ष शांतिपूर्ण समाधान पर पहुंच गया।

प्रायः, जो स्थूल घटना प्रतीत होती है, उसका एक अंतर्निहित सूक्ष्म पहलू होता है। घटनाएं स्थूल रूप में प्रकट होने से पहले सूक्ष्म आकाश में घटित होती हैं। हम आमतौर पर स्थूल के दायरे में कारण और प्रभाव के बीच जूझते हैं, लेकिन शायद ही कभी इसके परे देख पाते हैं। अंततः जो कुछ स्थूल रूप में प्रकट होता है, उसमें देवताओं की सूक्ष्म शक्तियां एक निश्चित भूमिका निभाती हैं, और वास्तव में इस पर उनका अधिक प्रभाव होता है। दिव्य शक्ति हमारा मार्गदर्शन करे।

(श्री श्री रविशंकर प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु और द आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक हैं। उन्होंने 9 जनवरी 2024 को बेंगलुरु आश्रम में सत्संग के दौरान एक प्रश्न के उत्तर में ये बातें अंग्रेजी में कहीं। अंग्रेजी से अनुवाद किया है वरिष्ठ पत्रकार राजीव रंजन ने)